मैंने हर एक अंत्येष्ठि में भाती भाती की बाते सुनी है चिता का मुंह इस दिशा में रखो कोई उसके उलट दिशा में रखने कहता। लकड़ी पहले या गोबर के कंडे पहले रखने की भी बहस होती है। कोई मटकी को कंधे से गिराने कहता है तो कोई धोती में पत्थर बांधकर दोनो पांव के नीचे से फोड़ने कहता है।
शमशान में जो कोलाहल होता है वह उस शांत स्थिर चित्त को संसार के कोलाहल में शामिल करने का ही एक बहाना सा लगता है। कई बार मैंने बुद्धिजीवियों को वहा की जाने वाली इस प्रकार के कोलाहल पर हास्य तथा खीज उत्पन्न करते भी देखा है।
चूंकि इस प्रकार की रस्मो रिवाज की मतभिन्नता विवाह , जन्मदिन से लेकर किसी तीज त्यौहार की पूजा अनुष्ठान में भी देखने मिलते है जो भारत की विविधता का एक अनूठा उदाहरण है।
चूंकि विविधता की प्रचुरता ही हमारी भाषाई, बोली, खान पान, रहन सहन, से लेकर पूजा मान्यता का आधार है जिसके कारण हम 33 कोटि देवी देवताओं की पूजा अर्चना भी करते है।
मान्यता के भीतर तर्क का स्थान नगण्य हो जाता है … मान्यता के भीतर का तर्क विज्ञान तथा व्यवहार एक अलग पक्ष है जिसके बारे में विशिष्ट व्यक्ति ही विचार करता है बाकी बहुसंख्य समाज देखा देखी का जिवन निर्वाह करता है।
कुल मिलाकर अन्तिम संस्कार में भी सामान्य संस्कार के समान सरलीकृत वातावरण बनाकर शौक संतप्त परिवारिक सदस्यों को जो की मुकदर्शक सभी पक्षों की बातो को सुनते मानते रहते है उन्हे नॉर्मल करने का एक उत्तम तरीका महसूस होता है।
आप सोचिए की किसी अन्तिम यात्रा में सब मूक होकर चेहरे लटकाकर बीना संवाद के पुतले के समान खड़े रहे कोई कुछ नही कहे तो क्या परिवार का अग्नि देने वाला व्यक्ति अपने प्यारे सम्मानित मृत व्यक्ति को अपने हाथो जलाने की जुर्रत कर पाएगा?
अन्तिम संस्कार में जो मतभेद रूपी वार्तालाप है वह उस व्यक्ति की संतप्तता से बाहर लाने का एक कृत्य सा प्रतीत होता है।
अलग अलग बाते कोलाहल मृत आत्मा के परिवार जनों के मन मस्तिष्क को अपने मृत प्रिय के मोह से छुड़ाने का उत्तम एवम अभिन्न प्रक्रिया का एक हिस्सा सा प्रतित होता है।
माताजी की अन्तिम यात्रा में अग्नि देने के उपरांत उत्पन्न एक वैचारिक द्वंद से उपजा यह विचार मां की शिक्षा, संवेदना, व्यवहार, तर्क तथा आध्यात्म के आशीर्वाद स्वरूप
विष्णू शर्मा